रोशन वर्मा की दो रचनायें
बैसाखी
मुझे दे दो
छोटा सा टुकड़ा
कपड़ा,
ज़मीन,
रोटी
या ग़ैरत का,
समय
या हक़ का ...
अनुपात से।
मैं क्यों करूँ संघर्ष अजायब घर में ?
पीढ़ियों से नहीं सीखा
तुम्हारी बला से।
अब तो आदत सी हो गयी है
खेलने की।
चल रहा है सिलसिला
न जाने कब से,
चलेगा
न जाने कब तक।
किंतु
समझ नहीं पाया अभी तक
इस खेल में कौन है खिलौना
मैं
या समय।
2- बन्दी
वह माँ बनी
सौभाग्य!
अनंत ख़ुशियाँ
और
सम्पूर्ण नारीत्व का अहसास
...
क्या सचमुच?
पर
वह तो दुःखी है
लज्जित और गुमसुम भी।
शब्द नहीं हैं
उसके होठों पर
हैं
तो सिर्फ़ दहशत और घृणा
उसके चेहरे पर
चिपके हुये स्थायी भाव से।
आकुल, आहत
और...
विजित...विक्षिप्त सी थी वह
किन्तु जागी
फिर एक दिन
देखा
सबको शोलों भरी आँखों से।
अब
खड़े थे सब
सिर झुकाये हुये ।
उसने एक-एक कर थूका
सबके चेहरों पर ...
"किस-किस का नाम लूँ..?"
पहले वह बन्दी थी
अब हम बन्दी हैं।
(वह मध्यप्रदेश की एक जेल में दस माह से बन्द थी)
No comments:
Post a Comment