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Monday, May 14, 2012

सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव की स्त्री विमर्ष पर आधारित कुछ रचनायें

स्त्री अवाँछित हो गयी है क्या? अवांछित हो गयी है तो स्त्री देह की नुमाइश पर खड़े बाज़ार के प्रति इतनी लालायित क्यों है दुनिया? क्या स्त्री का अस्तित्व  उपभोग की परिधा में जकड़ दिया गया है? ....आख़िर क्यों स्त्रीभ्रूण इतना अवांछित हो गया है कि उसे विज्ञान से भी भय हो गया है? ...ये कुछ प्रश्न हैं ..ज्वलंत प्रश्न जिनके उत्तर खोजने के लिये समाज को झिंझोड़ने का प्रयास कर रहे हैं सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव। 

       1-     बिटिया का प्रश्न


गर्भ में आते ही
दी थी, उसने दस्तक
और धीरे से कहा था- माँ!
मैं देखना चाहती हूँ दुनिया,
मुझे बाहर आने से मत रोकना,
मैं घातक हथियारों से डरती हूँ,
तमंचों की आवाज़ भी
मुझे सहमा जाती है
एक अनजाने भय की सिहरन
कौंध जाती है, मेरे
कायानुमा मांस के लोथड़े में।
यह कैसा समय आ गया है
कि तुम्हारे गर्भ में रहकर भी, मैं
आतंकित हूँ ...असुरक्षित हूँ
पर जब तक तुम्हारी ममता
मेरे साथ है
मैं भयमुक्त हूँ।
जानती हूँ मैं
बाहर की दुनिया बड़ी निर्मम है
व्ह प्रेरित करेगी तुम्हें
ममता का त्याग करने को
तरह-तरह के प्रलोभन देगी
वंश और पीढ़ियों का वास्ता देगी।
विज्ञान ने
लाँघकर अपनी सीमायें
तुम्हें यह बता दिया कि मैं “मैं” हूँ
वरना क्या तुम त्याग सकतीं
अपनी ममता?
कदापि नहीं माँ!
तुम तो ममता की मूर्ति हो,
क्या तुम
मुझमें अपना प्रतिबिम्ब नहीं देखतीं?
तुम्हें याद नहीं आता अपना बचपन ?
सोचो,
अगर तुम्हारी माँ ने भी
यही सोचा होता
जो तुम आज सोच रही हो
तो कहाँ होता तुम्हारा अस्तित्व?
और कहाँ होता तुम्हारे पास
यह सब कुछ सोचने का अधिकार?
तुम्हारी कोख में
केवल मैं नहीं
एक समुद्र है जिसके वृत्त में
अनेकानेक चीजें सप्राण हो रही हैं।
क्या तुम महसूस नहीं करतीं
एक पूरी पृथ्वी रेंगती है
तुम्हारे गर्भ में?
माँ! परम तत्वों की
स्वायत्तता को स्वीकारो
मुझे मत मारो....
मुझे मत मारो....।

     2-    छद्म नाम.....
एक लड़की हो
खेलो
गुड्डे-गुड़ियों के खेल,
झूठ-मूठ का
खाना बनाने-खिलाने का खेल।
तुम्हें नहीं चाहिये
चाबी से उड़ने वाला हेलीकॉप्टर
पटरी पर दौड़ने वाली रेलगाड़ियाँ।
भला
खिलौना कहीं खिलौनों से खेलता है?
तुम बहुत ज़ल्दी बड़ी हो जाओगी
क्योंकि
सबके सब देख रहे हैं तुम्हारा बढ़ना
चिंटू-पिंटू से लेकर
मन्दिर का पुजारी तक।
तुम नहीं जानतीं
मद्रास के समुद्री किनारों की तरह
कटे-फटे होने के बावज़ूद
तुम सिंगापुर की तरह सुन्दर हो।
बहुत ज़ल्दी ही
तुम्हारा भी मूल निर्धारित कर लिया जायेगा।
बहुत बड़ा होगा तुम्हारा बाज़ार
जैसा कि होता है
एक सुन्दर मॉडल का बाज़ार
राइट या लेफ़्ट क्लिक करके
लोग ले लेंगे तुम्हें अपनी मेमोरी में
तुम तितली से फूल हो जाओगी
और इस तरह धीरे-धीरे बहने वाली हवा
अंततः आँधी बन जायेगी
इससे पहले कि सूरज तपे
और पिघलने लगे तुम्हारे ऊपर का आसमान
क्यों नहीं रख लेतीं तुम
अपना कोई छद्म नाम
जैसे कि प्रेम चन्द
या कुछ और..... 



  3-      ज़रूर पूछेगी बेटी
कल पूछेगी बेटी
ज़रूर पूछेगी
क्या कर रहे थी आप
उस वक़्त
जब छीनी जा रही थी
मेरे हाथ से किताब
और थमा दी गयी थी
एक झाड़ू.....
गोबर से भरा एक तबेला।
यह भी पूछेगी बेटी, 
जब असमय ही
बूढ़ी बनायी जा रही थी मैं
और वह
अपनी जीत पर ठहाके लगा रहा था
तब पिता होने का फ़र्ज़
किस हद तक निभाया था आपने ?
ज़रूर पूछेगी बेटी,
जब अस्त हो रहा था
मेरी उम्मीदों का सूरज     
और
फेकी जा रही थी मैं
किसी रद्दी की टोकरी में
एक हिंसक युद्ध के बाद
तब
क्या कर रहे थे वे
जिन्होंने उठा रखा है बीड़ा
सब कुछ बदल देने का
शायद....नारे लगा रहे होंगे
किसी सार्वजनिक मंच पर
“नारी पढ़ेगी विकास गढ़ेगी........
नारी पढ़ेगी विकास गढ़ेगी”    



Tuesday, April 17, 2012

ऋषिका दुबे फ़ार्मेसी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। कागज़ को काला करना इनका शौक तो नहीं पर ज़रूरत अवश्य है.... ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे अनुभवों की रंगोली सजाना अच्छा लगता है। ज़िन्दगी की आँख मिचौली हैरान करती है इन्हें। आज प्रस्तुत है उनकी यह रचना -    
एक साल बाद

सुन रही हूँ ....................
दरवाज़े पर दस्तक दी है किसी ने
कौन होगा ?
कहीं ज़िन्दगी तो नहीं ?
याद करती हूँ.....
हाथ थामे
घूमा करते थे हम बाज़ार में
अचानक हाथ छूट गये और कब
आगे निकल आयी मैं
पता ही नहीं चला।
ये अकेलेपन की उदासी थी
लम्बा वक़्त लग गया
इससे जूझने में।
साल बीत गया, हमें
बाज़ार घूमे हुये।
उदासी भी कोई ऐसी-वैसी नहीं थी
दिन सुबकते रहे
रातें सिसकती रहीं
लम्हों की रेत हाथों से खिसकती रही
पर ज़िन्दगी ने, देखो
हार नहीं मानी,
गली-गली नाम पूछती रही मेरा;
चेहरों की भीड़ में
चेहरा ढ़ूँढ़ती रही मेरा।
दरवाज़े पर रखे हाथ
काँप रहे हैं मेरे
उसकी आँखों में मेरी तलाश की बेचैनी
कोई भी पढ़ सकता था।
एक दिन, गहरी साँस ले
कुछ हिम्मत जुटाई
खोल दिये उदासी भरे तहख़ाने के दरवाज़े
और ये क्या!!!
यहाँ तो तुम हो,
मदमस्त हवाओं की मुस्कान
होठों पर सजाये
खिलते हुये चाँद की चमक
आँखों में बसाये
बाहों में पूरे जहां की खुशियाँ हैं तुम्हारे
और चेहरे पर स्वर्णिम भविष्य का तेज़।
सोचा था,
ज़िन्दगी मुझे ढ़ूँढ़ती होगी दर-दर
पर ये तो तुम थे
जो उसे मेरे लिये फिर ढ़ूँढ़ लाये
एक साल बाद....
फिर ज़िन्दा-ज़िन्दा हूँ मैं।