हाइब्रिड और कलम का ज़माना है. ऐसे-ऐसे बीज आ गए हैं सब्जियों के ज़ो सिर्फ एक बार ही उगते हैं. उनसे निकले बीज किसान के लिए बेकार हैं ...हर बार बीजों के लिए बाज़ार पर निर्भरता बढ़ती जा रही है....किसान का मौलिक हक और बीजों की स्वाभाविक प्रकृति उनसे बलात छीन ली गयी है और महिमामंडित हो रहे हैं नपुंसक बीज .....प्रतिभा थोपने का यह दौर ख़त्म भी हो पायेगा कभी .....? कई अर्थों की ओर संकेत करती रोशन वर्मा की कविता ...- कौशलेन्द्र
वाह !
चटख रंग ....
और आकार भी बड़ा,
बरसों से खिल रहा है
और शान से खड़ा है.
चलन इसी का है अब ...यही बिकता है
हर जगह .......
गमलों और बंगलों में खिलता है,
खाद-पानी भी .....सिर्फ उसे ही
शेष तो खरपतवार हैं,
धूप पर भी उसी का हक
और तो बेघर-बार हैं.
..........हाँ ! जड़ों से पीक न फूटे
मुस्तैदी से यह देखते रहना होगा
जड़ें ज्य़ादा बढ़ जाएँ
तो उन्हें भी काटते रहना होगा
जड़ें मज़बूत हो गईं अगर
तो फिर ....वही
देशी का साम्राज्य हो जाएगा
छोटा फूल, हल्का रंग ....मगर गज़ब की ख़ुश्बू !
अरे छोडिये न ! ख़ुश्बू भी कहीं दिखाई देती है भला ?
दिखता है .....बड़ा सा आकार और चटख रंग
दिखता है .....बड़ा सा आकार और चटख रंग
ख़ुश्बू नहीं है तो क्या .....बाज़ार तो है
देखो ... लोगों की सोच कहीं बदल न जाय
अभी हमें बहुत "विकास" ज़ो करना है
हर जगह कलम और सिर्फ कलम ही लगाना है.
कोई भी क्रान्ति हो
इससे पहले ही सब कुछ समेट लेना है .
कोई भी क्रान्ति हो
इससे पहले ही सब कुछ समेट लेना है .