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Tuesday, December 28, 2010

तुमको शरमाते देखा था

कोई और नहीं तुम भोलापन हो / जैसे चुपचाप टपकता महुवा / कभी ओस में कभी धूप में / हरदम भीगे देखा है ....- कौशलेन्द्र  
आज हेमेन्द्र साहसी की एक मादक सी कविता ........


बांसों के झुरमुट के पीछे 
घने साल पेड़ों के नीचे 
तीरथगढ़ के फेनिल झरनों में  
तुमको इठलाते देखा था  /

रीलो की मस्त धुनों पर
मांदर की मंथर थापों पर 
गोदने के नीले गहनों में 
तुमको बल खाते देखा था  /

महुए की मादक महक में 
गीत गाती मैना के संग 
टोकरी में चार-तेंदू के संग 
बस्तरिया हाटों में गुनगुनाते देखा था /

देवारी माटी-तिहार में
घुंघुरू की मधुर झंकार में 
घोटुल-मोटियारिन के दुलार में 
तुमको शर्माते देखा था /

Monday, December 27, 2010

तरक्की - दिनेश वर्मा

हमने काफी तरक्की की है
चाँद को छुआ है ......
मंगल में झांक आए....
गाँव त्यागकर
शहर आ गये .
अब हम सुखी हैं. 
फिर क्या हुआ ...गर .....
अब हमारे घर में आंगन नहीं 
तुलसी का धरा नहीं 
दौना का पौधा नहीं 
गाँव की चौपाल नहीं 
स्वच्छ हवा ......
और ...खुले मन का आदमी नहीं
हम सुख को तौल रहे हैं 
शहर के तंग जीवन में......
तमाम तरक्कियों के बीच
इधर-उधर भटकते हुए.    

Saturday, December 25, 2010

'द' .... फ़ार दारू .... -दिनेश वर्मा

गाँव का मास्टर स्कूल से आता है , थकान मिटाता है
और पड़ोसी को उसके सवालों के हल बताता है -
'द' ......फ़ार ........दारू .......
साहब दौरे पर जाते हैं, ..... या दौरे से वापस आते हैं 
चपरासी मेज़ पर .....रख जाता है , जाते-जाते बता जाता है -
सर ! 'द'.......... फ़ार ......दारू .......
छोटे बाबू शाम को आफ़िस का हिसाब मिलाता है 
कैश में कुछ रूपये ज्यादा पाता है
तो बड़े बाबू के सामने कनखियों से इशारे कर 
मस्ती में गुनगुनाता है ......'द' .........फ़ार........दारू .....
नेता ठेकेदार से मिलता है 
दोनों का दिल खिलता है 
चमचे जोर से चिल्लाते हैं ...'द' ....फ़ार ....दारू......
कोई फ़ाइल चपरासी के हाथ हो
और फ़ाइल वाला चपरासी के साथ हो 
तो चपरासी सहानुभूति जताता है -
सर ! काम करा दूं .....तो ....'द' ...फ़ार ....दारू ....?
फिर भी ........मुझे 
किसी से न कोई शिकवा है ......न कोई गिला 
सच पूछो ....तो अब नहीं रह गया हूँ मैं भी कोई दूध का धुला 
और मैं भी गुनगुनाने लगा हूँ अब ......'द' .....फ़ार .....दारू......
मैं जब-जब एम्.ए., बी.एड. शिक्षक के पे-डाटा पर 
सरपंच  का अंगूठा लगवाता  हूँ 
और किसी पीएच. डी. वाले को महज़ एक शिक्षाकर्मी पाता हूँ 
हाँ-हाँ तब मैं भी गाता हूँ ......'द' ....फ़ार....दारू....
जब मैं किसी माननीय  नेता जी को छत्तीसगढ़ की स्पेलिंग बताता हूँ ...
और चपरासी का "होंडा" साहब के लिए मांग कर लाता हूँ  
या जब-जब योग्यता में राजनीति का ग्रहण पाता हूँ
और नौजवानों को संविदा की सूली पे लटका पाता हूँ 
तब भी मुझे एक ही बात याद आती है .......'द' .......फ़ार....दारू...... 
पर कुछ बातें तो इतनी घिनौनी हैं 
कि उन्हें बताने के लिए भाषा भी बौनी लगती है 
इसलिए जब-जब दर्द से तिलमिलाता हूँ 
तब-तब अपना दर्द मिटाता हूँ 
जिसका सस्ता सा उपाय है ..'द' ....फ़ार....दारू...
'द' ....फ़ार....दारू....
      

Friday, December 24, 2010

दिनेश वर्मा की दो कवितायें

कांकेर जिले की चारामा तहसील में उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर एक शाला में अपनी सेवायें दे रहे दिनेश जी पुरातत्व प्रलेखन जुड़े हुए हैं ....इनका शेष परिचय इनकी रचनाओं से समय-समय पर आपको मिलता रहेगा. प्रस्तुत हैं यहाँ उनकी दो रचनाएँ -
"एक" 
वेदना
किसी ग्रामीण महिला का
जंगल में प्रसव होना ........ 
कविता है.
उसकी पूरी देह .......
कविता है.
अन्न के कुछ दाने जुगाड़ कर
उसका एक दिन और जीवन जी लेना 
कविता है .
'जानवर' के कारण बच्चों का स्कूल न जाना 
कविता है.
इलाज़ के अभाव में 
और झाड-फूंक के प्रभाव में 
कम उम्र में बुधरू का मर जाना 
कविता है.
बुधियारिन का कम कपड़ों के कारण
बलात्कार हो जाना
कविता है.
और इसी गाँव का नशे में धुत्त मास्टर
कविता  है.
सबसे बड़ी कविता है 
इक्कीसवीं सदी में 
इन सबका निरक्षर होना. 
 " दो "
 आदिवासी 
१- 
इनका जीवन 
बारिस की नन्हीं बूँद है 
पटर-पटर, 
संरक्षण के अभाव में
जल्दी नष्ट हो जाने वाले.
२-
इनका जीवन
पगडंडी है
कतार में चलते-चलते
उम्र बीत जाती है 
सड़क का अहसास तक नहीं.
३-
इनका जीव
नदी है 
लोग दोहन करते हैं
तृप्त होते हैं 
और वे प्रवाहमान हैं .....
टेढ़े-मेढ़े गिरते-पड़ते.
४-
इनका जीवन
समूह होता है
हाट-बाज़ार में 
रहते आधी उम्र तक
फिर भी भावनात्मक रिश्तों से दूर.
५-
इनका जीवन 
दत्तक पुत्र है 
ज़ो पलते-पलते सरकारी नीतियों में 
हो  जाता है अंत में 
सौदागरों के हवाले.



Friday, December 10, 2010

०५- आज की अभिव्यक्ति में ....."हीरे की तलाश" -कनुप्रिया वाजपेयी

ग्राम संबलपुर निवासी कुमारी कनुप्रिया वाजपेयी हिन्दी और भारतीय इतिहास में एम्.ए. हैं.प्रस्तुत है उनकी वह रचना ज़ो ०८-११-०८ को चौराहे पर प्रदर्शित की गयी थी -
आज कैसा-कैसा  ये मंज़र छाया है,
हर आदमी नें खंज़र पाया है /
कांच का है घर बना,पत्थरों की होने लगी बरसात 
कैसे कह दें कुछ नहीं हो रहा है अन्दर भीतरघात /
लोगों के खाने के और दिखाने के दाँत और हैं 
इन भीड़ भरी राहों में चलने की बात कुछ और है /
प्रांत-प्रांत, भाषा-भाषा का बखेड़ा है 
ये प्रदेश तेरा है ये प्रदेश मेरा है /
शून्य नीरव भावनाओं में स्वप्न भरा आसमान
पीड़ा-व्यथा है विशाल अदना सा बना इंसान /
ये मांगे तो हाँ वो मांगे तो हाँ 
भूल गयी मैं तुम न भूलो ये अहसास /
समय का सिक्का चल पड़ा है 
हम सब कहने को आज़ाद मगर मन में कारावास /
किसको चुनें किसको छोड़ें, सब ओढ़े हैं नकाब 
इस भीड़ भरी खानों में हीरे की है तलाश /

Wednesday, December 08, 2010

०४-आज की अभिव्यक्ति..."छींक आये तो लन्दन जाएँ " ..कौशलेन्द्र

दिनांक-०६-११-२००८, ....वो मौसम था चुनाव का... ..जब मैनें यह रचना भानुप्रतापपुर के चौराहे पर प्रदर्शित की थी .....नक्सलियों का आतंक  ऐसे मौकों पर और भी बढ़ जाता है. बाद में मुझे पता चला कि बी.एस.एफ़.और कोबरा बटालियन के लोगों को यह रचना पढ़ कर बड़ा मज़ा आया...कई लोगों नें तो श्वेत पट को अपने कैमरों में भी कैद कर लिया , लीजिये प्रस्तुत है-
ये उत्तर है, ये दक्षिण है, ये पूरब, ये पश्चिम है/
ये मेरी, वो तेरी भाषा, जाति-धर्म बेमेल है //
सभी भेड़िये बने रहनुमा, घूमें पूरे देश में /
रोज बन रहे नए कबीले, उलटे-सीधे वेश में //
मेरा-तेरा कहते-कहते...बांटो पूरा देश ये /
छूट न जाए, सब कुछ बांटो .....ये सत्ता-सत्ता खेल है //
खंड-खंड कर दो समाज के, बेचो फिर से देश ये /
बात करो आदर्शों की पर, ध्यान लगाओ वोट पे //
इसे हटाकर उसे सटा दो, इसे लड़ाकर उसे पटा लो /
उल्टा करके उसका उल्लू , अपना उल्लू सीधा कर लो //
मूल्य-वूल्य की बात करें क्यों, आदर्शों की राह चलें क्यों ?
हमको क्या भूखों मरना है, सत्ता से वंचित रहना है ?
ना-ना दीदी, ना-ना भैया...मन को मार नहीं रहना है /
कर  प्रपंच हमको हर भैया, कैसे भी सत्ता पाना है //
आओ हम भी टिकट जुगाड़ें, नहीं मिले तो बागी होकर /
इसे उखाड़ें, उसे पछाड़ें, कोई भी हम करें तमाशा ....कैसे भी एक टिकट कबाड़ें //
टिकट मिले तो नाचें-गायें, दारू बाटें, कपड़ा बाटें /
गली-गली में रगडा खाके, केवल झूठे वादे बाटें //
हार गए तो हर-हर गंगे, जीत गए तो मुर्गा खाएं /
यह भी खाएं ..वह भी खाएं, पाँच साल तक देश को खाएं //
खून पियें सारी जनता का, छींक आये तो लन्दन जाएँ /
सबसे प्यारा देश हमारा झूम-झूम के गाना गायें //



 

क्यों न भर्त्सना करें देश द्रोहियों की ....

अंततःभांडा फूट ही गया देश द्रोहियों का.......२ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में देश के दुश्मनों नें ४५ मिनट के अन्दर देश की जनता के करोड़ों रुपयों का बन्दर बाँट कर लिया. शीर्षस्थ हाई प्रोफाइल दुष्टों की वार्ताओं के टेप से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि राज नेताओं से लेकर मीडिया तक की भागीदारी में किस तरह गुंडागर्दी का आलम छाया हुआ है ......और किस तरह सत्ता को जेब में डालकर घूमने की अपसंस्कृति अपने पैर पसार चुकी है. अभी तक ज़ो भी तथ्य सामने आये हैं उनसे यह स्पष्ट हो चुका है कि हमारे प्रधान-मंत्री की जानकारी में सारा खेल होता रहा .....यदि वे लाचार थे तो कुर्सी छोड़ देनी थी ....उस कालिख में खुद भी काले हो गए .....यह कैसी लाचारी .....नहीं हम उन्हें भोला नहीं कह सकते ......देश की कमान जिसके हाथ में हो उसे कैसी लाचारी ....और क्यों ? क्या यह उनकी अक्षमता का स्पष्ट प्रमाण नहीं ?
अब हमारी भूमिका देश के प्रति क्या होनी चाहिए ....यह हमें और आपको तय करना है ....और बड़ी दृढ़ता से तय करना है.अभी हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इन नालायक लोगों की भर्त्सना करें और एक स्वर से यह माँग करें कि इनकी सारी परिसंपत्तियां जब्त कर देश की संपत्ति घोषित की जाय और इन्हें देशद्रोही घोषित किया जाय.
यहाँ मैं मुक्त हृदय से प्रशंसा करूंगा .......एक ताज़े फैसले में ....मध्य-प्रदेश के एक सत्र न्यायाधीश नें भ्रष्टाचार के मामले में दोषी उपयंत्री को पाँच करोड़ का जुर्माना और तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाकर अनुकरणीय कार्य किया है.......ऐसे न्यायाधीश को पूरे देश की ओर से मेरा नमन.
२-जी घोटाले को रोकने के लिए जिन अधिकारियों नें अपनी कर्तव्यनिष्ठा और दृढ़ता का परिचय दिया वे प्रशंसा के पात्र हैं .....हमें और हमारे पूरे देश को ऐसे अधिकारियों पर गर्व है ...मुक्त हृदय से मैं आदरणीय मिलाप जैन -डी.जी. इन्वेस्टीगेशन - आयकर विभाग, आदरणीय विनीत अग्रवाल-डी. आई.जी.-सी.बी.आई., आदरणीय प्रत्यूष सिन्हा -कमिश्नर-चीफ विजिलेंस, आदरणीय प्रशांत भूषण- अधिवक्ता- सर्वोच्च न्यायालय, आदरणीय     प्रणन्जय गुहा -आर्थिक पत्रकार, आदरणीय अनिल कुमार -सचिव- टेलीकाम वाच डाग एवं अन्य कई लोग जिन्होंनें इस मुहिम में अपनी निष्ठा का परिचय दिया, के प्रति हृदय से आभारी हूँ ......और सच कहूं तो ये वे लोग हैं ज़ो किसी स्वतंत्रता सेनानी से कम नहीं हैं ...आखिर आज़ादी को बचाए रखना भी एक सतत संघर्ष की प्रक्रिया है ......इन सबको मेरा कोटि-कोटि नमन
और एक अपील आप सबसे भी .......राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे आदरणीयों का  सम्मान किया जाना चाहिए ...इसके लिए आप सब सामने आयें ....साथ ही देश द्रोहियों के विरुद्ध एक मत से भर्त्सना के लिए भी आगे आयें....जय भारत !             

Monday, December 06, 2010

योग से भोग की ओर......दृष्टिकोण अपना-अपना

योग और आयुर्वेद आज अनजाने नाम नहीं रहे ......न जाने कितने लोग "रोज योग का प्रशिक्षण ले कर लाभान्वित हो रहे हैं" -ऐसा कहा जा रहा है . पिछले दिनों एक ऐसा ही रोगी मिला ज़ो अपने तरीके से योग का प्रयोग कर रहा था ....ध्यान देंगे, मैनें  " प्रयोग "  कहा. विवरण प्रस्तुत है - 
नाम - ................/ उम्र- लगभग १८ वर्ष/    लिंग- पुरुष /  व्यवसाय- कक्षा ग्यारहवीं का छात्र /   निवासी- ....गाँव 
c /o - नामर्दगी के लक्षण (E.D.& P.M.E.)
वैवाहिक स्थिति - अविवाहित /     योगाभ्यास की अवधि- पिछले दो वर्ष से. 
यह लड़का योग का बड़ा प्रशंसक था ...दुर्भाग्य से न जानें क्यों नियम ( ? ) से योग करने के बाद भी उसे लाभ नहीं हो पा रहा था ...अब वह आयुर्वेदिक नुस्खे ( औषधि ) की तलाश में हमारे पास आया था. मैंनें उसे कुछ परामर्श दिया पर वह संतुष्ट नहीं हुआ. मैं समझ गया अब यह नीम-हकीम के दरवाज़े भी जाएगा और लूटा जाएगा.
मैं योग के इस प्रयोग को लेकर किंचित विचलित हुआ ....न जाने कितने और भी लोग होंगे ऐसे जो योग को अपने-अपने तरीके से प्रयोग में ला रहे होंगे. इस उम्र के कई अविवाहित लोग "नुस्खे" की तलाश में हमारे पास आते रहते हैं ......पर इस युवक नें आचार्य रजनीश की याद दिला दी. उनकी एक पुस्तक- "सम्भोग से समाधि की ओर"  अपने ज़माने में बड़ी विवादास्पद रही है.......बहुत बाद में जब मैंने उसे पढ़ा तो रजनीश के दृष्टिकोण से संतुष्ट हुआ. पर इस युवक नें तो जैसे रजनीश के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया हो ..."योग से सम्भोग की ओर" .यह उपेक्षणीय  नहीं विचारणीय विषय है.
पहली बात तो यह कि क्या योग का यह भी एक उद्देश्य है ? दूसरे, क्या योग का ज्ञान देने से पूर्व पात्रता-अपात्रता का निर्णय नहीं होना चाहिए ? तीसरे, क्या अब " योगश्च्चित्त वृत्ति निरोधः " के स्थान पर योग की कोई नवीन परिभाषा बनाए जाने की आवश्यकता है ? और चौथे यह कि क्या हम योग को विकृत करने की मौन स्वीकृति नहीं दे रहे ?
आज उच्च शिक्षा के लिए पात्रता परीक्षाएं आयोजित की जा रही हैं ....क्या योग, जो कि एक श्रेष्ठ विज्ञान है, के लिए कोई पात्रता परीक्षा नहीं होनी चाहिए ? भारतीय ज्ञान-विज्ञान के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव घातक होगा ...यह निश्चित है . मैं पुरानी बात दोहराना चाहूंगा ....ज्ञान सर्व सुलभ तो हो पर हो सुपात्र के लिए ही. आज हम योग के भौतिक लाभों के प्रति लोगों को आकर्षित कर रहे हैं ....भीड़ इसीलिये उमड़ रही है .....यह दीवानापन इसीलिये है. ज़रा एक शिविर ऐसा लगा कर देखिये जिसमें लोगों को योग से सिर्फ मनुष्य बनाने का दावा किया जाय.....कोई नहीं आयेगा. मनुष्य कोई बनना ही नहीं चाहता.....लोग अर्थराइटिस, हृदय रोग, मोटापा ........आदि ठीक करने के लिए योग ( ? )सीख रहे हैं......चित्तवृत्ति के निरोध के लिए सीख रहे होते तो अब तक रिश्वतखोरी और कामचोरी का ग्राफ बहुत गिर गया होता. ....भाई मेरा तो पैमाना यही है ...मैं महर्षि पतंजलि की आत्मा से प्रार्थना करूंगा कि वे हम सबको सद्बुद्धि दें ...कि योगप्रेमी लोग योग को यदि उसके सही रूप में न अपना सकें तो कम से कम उससे छेड़खानी भी न करें. इति शुभम !              

Sunday, December 05, 2010

०३- बस्तर की अभिव्यक्ति में आज की अभिव्यक्ति ....."लोक-स्वराज अभियान"......वैदराज आहूजा.

भानुप्रतापपुर निवासी श्री वैदराज आहूजा होटल व्यवसायी हैं. "आज की अभिव्यक्ति" में उनकी रचना दिनांक ३-११-२००८ को प्रदर्शित की गयी थी .  

अब तो यह स्पष्ट है 
सारे नेता भ्रष्ट हैं .
सब सुधरेगा...यदि ये तीन सुधारें-
नेता,
कर,
क़ानून हमारे.
वर्त्तमान व्यवस्था
शासकों, पूंजीपतियों एवं अधिकारियों का 
शोषण के उद्देश्य से 
मिला-जुला षड़यंत्र है .
आइये,
लोकतंत्र से लोक-स्वराज्य की ओर चलें,
ज़ो सत्ता के विकेंद्रीकरण का
और अधिकारों के अकेंद्रीकरण का 
आपसे वादा करें
अपना मतदान कर उसे ही चुनें.


Saturday, December 04, 2010

आज की अभिव्यक्ति- "गांधी जी तोर देस म" - गणेश यदु

एक बहुत पुराना वादा आज से निभाना चाहता हूँ .........बस्तर की अभिव्यक्ति की जब शुरुआत की गयी थी तो यह वादा किया गया था कि श्वेत पट पर लिख कर ज़ो भी रचना भानुप्रतापपुर के चौराहे पर रखी जायेगी उसे आप सबके लिए भी प्रस्तुत किया जाएगा किन्तु कई कारणों से यह संभव नहीं हो सका,फिर जब संभव हुआ तो डायरी ही खो गयी ....अब जब डायरी मिल गयी है तो किंचित सुधार व सम्पादन के साथ आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. 
एक निवेदन है .....बस्तर के एक छोटे से गाँव के लोगों नें कविताओं के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है .....अतः साहित्यिक पक्ष पर विशेष ध्यान न देकर उनकी भावनाओं ....व सन्देश की ओर अधिक ध्यान देंगे ......ऐसी अपेक्षा करता हूँ .
तो सुधीजनों ! इस कड़ी में आज प्रस्तुत है दिनांक ०४-११-२००८ को प्रदर्शित ग्राम संबलपुर निवासी श्री गणेश यदु की छत्तीसगढ़ी में लिखी यह रचना..... "गांधी जी तोर देस म ......"

गांधी जी तोर देस म मनखे ह, मनखे मन ल मारत हें /
तीनों बेंदरा मन ह तोर, आँसू ढर-ढर  ढारत हें //
जे हे देखइया  अंधरा हो के, अनदेखी कर देथें /
बात सुनइया भैरा हो के, अनसूनी कर देथें //
सत्त कहइया मुक्का बनगे, जान-बूझ के नई बोलय /
सत ईमान अउ धरम-करम के , भेद-मरम नई खोलय //
गदहा राजा के घोड़ा बनगे, घोड़ा अवसर ताकत हें /
राजा के घोड़ा रेहंकत हावय, घोड़ा ल दुलत्ती मारत हें //

गांधी जी तोर बेंदरा मन ह, देख दसा ये अकबक खागे /
अपन-अपन ओह हाथ हटाके, दिए ज़ो तोला बचन भुलागे //
गांधी जी तोर देस मं ए , अब कइसनहा दिन आगे /
सत्त-अहिंसा दूर लुकागे, हिंसा ह नाचे आगे //
मनखेपन अउ गाँव-गाँव बर , अब समे जगे के आगे /
आतंकवाद-अलगाववाद संग , अब समे लदे के आगे //
दाई-दीदी करे हमाली, मरद मन सान बघारत हें /
मंद पिए औ नरवा सूते, डौकी मन ल बारत हें //   
 गांधी जी तोर देस मं ......